9 सितंबर जन्मदिवस पर विशेष
पालमपुर निवासी गिरधारी लाल बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। इनकी माता की श्रीरामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी तो उन्होंने दोनों का नाम लव और कुश रखा। लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल। पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में दाखिल करवाया गया। सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम प्रबल हो उठा। स्कूल में विक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ही अव्वल नहीं थे, बल्कि टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज़्बा था।
विक्रम बत्रा एक बेहतरीन आलराउंडर थे। स्कूल में होने वाली हर प्रतियोगिता में वह सक्रिय रहते थे। इन सबके साथ-साथ वह शरारती भी थे। जिस कारण उन्हें कई बार शिक्षकों की डांट भी खानी पड़ती। इस सबके बीच विक्रम की नन्हीं आंखों में एक ऐसा सपना आकार लेने लगा था, जिसकी खबर उन्हें खुद भी नहीं थी। उनके स्कूल के पास होलटा में आर्मी का बेस कैम्प था। इस कारण वह स्कूल आते-जाते समय वहां चलने वाली गतिविधियों को देखते रहते थे। सेना की कदमताल और ड्रमबीट की आवाज को सुनकर वह अक्सर रुख कर देखा और सुना करते थे। उनको यह सब बहुत अच्छा लगने लगा था। वह घर जाते थे, तो पिता से इस बारे में बात करते थे। पिता उनकी दिलचस्पी देखकर उन्हें वीरता के किस्से सुनाया करते थे।
जमा दो तक की पढ़ाई करने के बाद विक्रम चंडीगढ़ चले गए और डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान वह एनसीसी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट चुने गए और उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लिया। उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी जिसे इनके द्वारा ठुकरा दिया। वह पोलैण्ड जाने के लिए तैयार थे। फिर अचानक न जाने उन्हें क्या हुआ, वह मां की गोद में सिर रखकर बोले, मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना। मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूं। उनका यह फैसला हैरान कर देने वाला था। उन्होंने लाखों रुपए की नौकरी ठुकरा दी थी। वह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वह सेना का हिस्सा बनना चाहते थे। वह पूरी तरह से मन बना चुके थे कि वह इसके लिए खुद को पूरी तरह झोंक देंगे। इसी दौरान उनके जीवन में एक और मोड़ आय़ा. यह एकदम सरप्राइजिंग था, जिसकी उम्मीद उन्हें खुद भी नहीं रही होगी। विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए।
महज 18 महीने की नौकरी के बाद पहली जून 1999 को उन्हें कारगिल की लड़ाई में भेजा गया। वह बहादुरी से लड़े और सबसे पहले उन्होंने हम्प व राकी नाब पर भारत का झंड़ा फहराया। उन्हें कैप्टन बना दिया गया था। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को मिली। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। यह चैलेंज आसान नहीं था, लेकिन वह “दिल मांगे मोर“ वाले जो थे। कड़ी चढ़ाई होने के बावजूद विक्रम अपने साथियों के साथ इस चोटी पर कब्जा करने में कामयाब रहे। जीत का कारवां यहीं नहीं रुका। 4875 की चोटी की ओर आगे बढ़ते हुए उन्होंने दुश्मन को ललकारा। उनके साथ लेफ्टिनेंट अनुज नैयर भी थे। अचानक पाकिस्तानी सैनिकों ने अंधाधुध फायरिंग शुरु कर दी। उन्होंने देखा कि उनके साथी डेंजर जोन में हैं तो वह तेजी से पाकिस्तानी सैनिकों की ओर शेर की तरह टूट पड़े औऱ उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
मिशन लगभग पूरा हो चुका था। इसी बीच विक्रम की नजर अपने जूनियर साथी लेफ्टीनेंट नवीन पर पड़ी। एक विस्फोट में वह बुरी तरह जख्मी हो गये थे। विक्रम अपने साथी को कंधे पर लेकर आगे बढ़ ही रहे थे, तभी एक छिपे हुए पाकिस्तानी सैनिक की गोली उनकी छाती में आ लगी। वह खून से लथपथ थे, लेकिन उनका हौंसला नहीं टूटा। उन्होंने साथी को सुरक्षित जगह पहुंचाया और बचे पाकिस्तानियों पर टूट पड़े. अपनी आखिरी सांस लेने से पहले वह तिरंगा लहरा चुके थे।
कारगिल के बाद अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को युद्ध काल के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र(मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया। शेर की तरह अपने दुश्मन का शिकार करने के लिए ही उनके साथियों द्वारा उन्हें ‘शेरशाह’ का नाम दिया गया। उनकी आवाज में ‘ये दिल मांगे मोर’ जैसे कोड-वर्ड युद्ध के दौरान गूंजते रहे। दुश्मन से जूझते हुए वे कहते ‘हमारी चिंता मत करो, अपने लिए प्रार्थना करो। उनके इन शब्दों को देश के लोग आज भी अपने होठों पर सजाए फिरते हैं। आखिरी सांस तक जोश और जज्बे से लबरेज रहने वाले इस युवा अमर-शहीद को देश आज शत-शत नमन करता है।