जैसे जैसे हम दिसंबर की अंतिम सप्ताह की ओर बढ़ने लगते हैं और नए साल की आहट आने लगती है वैसे वैसे हमें उन लोगों की याद आने लगती है जिनके बिना हमें नए वर्ष में प्रवेश करना होता है। इस वर्ष भी साहित्य जगत कई महत्वपूर्ण और महान व्यक्तियों से रिक्त हुआ है जिसे भर पाना असंभव है। उन विभूतियों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्हें याद करते हैं। जो बिछड़े बारी-बारी गोपीचन्द नारंग : इस वर्ष उर्दू के मशहूर साहित्यकार गोपी चंद नारंग का निधन हो गया है। 91 वर्षीय नारंग ने अमेरिका में अंतिम सांस ली। नारंग का जन्म 1931 में बलूचिस्तान में हुआ था। 57 किताबों के रचयिता गोपीचंद नारंग को पद्म भूषण और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से भी अलंकृत किया गया था। उनकी कुछ प्रमुख रचनाओं में उर्दू अफसाना रवायात और मसायल, इकबाल का फन,अमीर खुसरो का हिंदवी कलाम, जदीदियत के बाद शामिल हैं। हिंदी, उर्दू, बलोची पश्तो सहित नारंग का भारतीय उपमहाद्वीप की छह भाषाओं पर अधिकार था। गोपीचंद नारंग ने उर्दू के आलावा हिंदी और अंग्रेजी में भी किताबें लिखी हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कॉलेज से उन्होंने स्नातक की पढ़ाई की। इसके बाद यहां शिक्षक भी रहे। पद्मभूषण के अलावा नारंग को पाकिस्तान के भी तीसरे सर्वोच्च अलंकरण सितार ए इम्तियाज से विभूषित किया जा चुका है। पंडित शिवकुमार शर्मा : विश्वप्रसिद्ध संगीतकार और संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा का मुंबई में कार्डियक अरेस्ट के कारण निधन हो गया। वे 84 वर्ष के थे। वे पिछले छह महीने से किडनी संबंधी समस्याओं से पीड़ित थे और डायलिसिस पर थे। पं. शिव कुमार शर्मा के सचिव दिनेश द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक पं. शिव कुमार शर्मा का निधन आज प्रातः 8 से 8.30 बजे के करीब हुआ। पंडित शिव कुमार शर्मा का हिन्दी सिनेमा जगत में अहम योगदान रहा है। बॉलीवुड में 'शिव-हरि' नाम से मशहूर शिव कुमार शर्मा और हरि प्रसाद चौरसिया की जोड़ी ने कई सुपरहिट गानों में संगीत दिया था। इसमें से सबसे प्रसिद्ध गाना फिल्म 'चांदनी' का 'मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां' रहा, जो दिवंगत अभिनेत्री श्रीदेवी पर फिल्माया गया था। माया गोविंद : हिंदी सिनेमा की लोकप्रिय गीतकार माया गोविंद का निधन हो गया। फिल्म ‘दलाल’ के गाने ‘गुटुर गुटुर’ को लेकर अरसे तक विवादों में घिरी रहीं माया गोविंद ने 82 साल की उम्र में अपने बेटे अजय की गोद में अंतिम सांस ली। लखनऊ में जन्म लेने वाली माया गोविंद को कथक में महारत हासिल रही। बतौर अभिनेत्री भी उन्होंने परदे पर और रंगमंच पर अपना नाम बनाया और तमाम पुरस्कार भी जीते। लखनऊ में 17 जनवरी 1940 को जन्मी माया गोविंद की रुचि शुरुआत से ही अभिनय व रंगमंच में अधिक रही, जबकि परवार के लोग उन्हें शिक्षक बनाना चाहते थे। शंभू महाराज की शिष्या रहीं माया ने कथक का खूब अभ्यास किया, साथ ही लखनऊ के भातखंडे संगीत विद्यापीठ से गायन का चार साल का कोर्स भी किया। साल 1970 में संगीत नाटक अकादमी लखनऊ ने उन्हें विजय तेंदुलकर के नाटक के हिंदी रूपातरण ‘खामोश! अदालत जारी है’ में सर्वश्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार दिया। बाद में वह दिल्ली में हुए ऑल इंडिया ड्रामा कंपटीशन में भी प्रथम आईं। फिल्म ‘तोहफा मोहब्बत का’ में भी उन्होंने अभिनय किया। जयप्रकाश चौकसे : प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे नहीं रहे। जय प्रकाश चौकसे का 83 साल की उम्र में निधन हो गया. उन्होंने इंदौर में अंतिम सांस ली. वो पिछले कुछ दिनों से गंभीर रूप से बीमार थे। वो लंबे समय से कैंसर की बीमारी से जूझ रहे थे। पिछले हफ्ते उन्होंने अपने लोकप्रिय कॉलम 'परदे के पीछे' की अंतिम किस्त लिखी थी. 25 फरवरी को लिखे अपने आखिरी कॉलम में उन्होंने हेडलाइन दी थी- ये विदा है, अलविदा नहीं, कभी विचार की बिजली कौंधी तो फिर रूबरू हो सकता हूं, लेकिन संभावनाएं शून्य हैं। लिली रे : मैथिली की प्रख्यात साहित्यकार लिली रे का निधन हो गया है। मैथिली साहित्य के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्हें वर्ष 1982 में मैथिली उपन्यास ‘मरीचिका’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनके निधन से मैथिली साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति हुई है। लिली रे का जन्म 26 जनवरी, 1933 को हुआ था। उनके पिता पं. भीमनाथ मिश्र उस समय के आईपीएस थे। लिली रे का मायका पूर्णिया जिले के रामनगर में था। 28 जनवरी, 1945 को उनकी शादी कटिहार जिले के दुर्गागंज निवासी डॉ. हरेन्द्र नारायण राय से हुई। वे स्थायी रूप में सिलीगुड़ी में रह रही थीं। हालांकि इन दिनों वे अपने पुत्र के पास दिल्ली में रह रही थीं। 3 फरवरी को वहीं उन्होंने 92 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली। मैनेजर पाण्डेय : गोपालगंज (बिहार) जिले के गाँव ‘लोहटी’ में जनमे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे मैनेजर पाण्डेय हमारे समय के सबसे गंभीर और जिम्मेदार समीक्षकों में रहे हैं। दुनिया भर के समकालीन विमर्शों, सिद्धांतों और सिद्धांतकारों पर उनकी पैनी नजर रहती थी। उन्होंने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना को, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के आलोक में, देश-काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक संपन्न और सृजनशील बनाया है। वैश्विक विवेक और आधुनिकता बोध उनकी आलोचना की प्रमुख विशेषताएं हैं। ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’, ‘शब्द और कर्म’, ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’, ‘भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य’, ‘आलोचना की सामाजिकता’, ‘हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान’, ‘आलोचना में सहमति असहमति’, ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा’, ‘अनभै सांचा’ आदि पाण्डेय जी की महत्वपूर्ण समीक्षात्मक कृतियां हैं। शेखर जोशी : साहित्यकार शेखर जोशी का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे काफी दिनों से बीमार चल रहे थे। वे आंतों में संक्रमण से ग्रसित थे। लेखन और जीवन के समग्र अवदान के लिए इस वर्ष अमर उजाला का सर्वोच्च शब्द सम्मान ‘आकाशदीप’ कथाकार शेखर जोशी को प्रदान किए जाने की घोषणा हो चुकी है, लेकिन यह सम्मान ग्रहण करने से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। जिससे पूरा साहित्य जगत शोकाकुल है। शेखर जोशी हिंदी के सुपरिचित कथाकार थे। बीसवीं शताब्दी के छठे दशक को आज भी हिंदी कहानी के उर्वर दौर के रूप में याद किया जाता है। वह दौर 'नई कहानी' आंदोलन का दौर था। शेखर जोशी उस दौर के सशक्त प्रतिनिधि रहे जो लगातार अपनी कहानियों में ताजापन और उसे जनसंवेदी बनाए रखने के लिए तत्पर और सावधान रहे हैं। एकदम से धीर, थिर चित्त से चली जा रही कहानियां उनके यहां सरल किस्सागोई के रूप में उपल्बध हैं। उनकी कहानियों में वस्तुपरकता के स्तर पर कथाकार के सामाजिक सरोकार और प्रस्तुति के स्तर पर पाठकों की समझ पर आस्था भरी हुई है। शिवकुमार अर्चन : हिंदी नवगीत के रचनाकार शिवकुमार अर्चन का 5 जुलाई को भोपाल में निधन हो गया। उनके निधन की खबर लगते ही रचनाकारों में शोक की लहर दौड़ गई है। रचनाकार अर्चन के निधन की जानकारी प्रो. विजय अग्रवाल कार्यकारी अध्यक्ष मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन भोपाल ने देते हुए बताया कि शिवकुमार अर्चन कुछ समय से बीमार थें और भोपाल में ही रह रहे थें, जहां उन्होने अंतिम सांसे ली है। उनके निधन से हिंदी काव्य जगत की जो क्षति हुई है उसकी भरपाई वर्षों तक नहीं की जा सकती। कई दशकों तक साहित्य के क्षितिज पर अपनी काव्य कला का जादू बिखेरने वाले अर्चन जी ने रीवा से अपनी काव्य यात्रा की शुरुआत की थी। वे अपनी रचना शैली के माध्यम से चर्चित रहे। यही वजह है कि उनके निधन से रचनाकारों को गहरा आघात लगा है। रचनाकार शिवकुमार अर्चन जी के बारे में बताया जाता है कि समसामयिक समस्याओं पर उनके पैने बिम्ब हुआ करते थें। वे गीत के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर गहरा आघात करते थे। उनका स्वर, रचना पाठ वर्षों तक गूंजेगा। देश की बात या फिर अन्य सामाजिक मूल्यो की अर्चन जी हमेशा अपने काव्य गीतों के माध्यम से ऐसे मुद्दों को बेबाकी के साथ रखने में कतई संकोच नहीं करते थे। दिनेश दिनकर : फ़िरोज़ाबाद नगर के वरिष्ठ कवि तथा पत्रकार दिनेश दिनकर का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वे लगभग 82 वर्ष के थे। दिनेश दिनकर व्यवहार कुशल अध्यापक थे। अध्यापन की लंबी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर वह पत्रकारिता में आए और कई मीडिया संस्थानों के साथ जुड़े। वे कवि भी थे और यथार्थ की बात करते चुटीले मुक्तक लिखते थे। उन्होंने भारतीय साहित्यिक समिति की स्थापना भी की जो साहित्य के लिए ज़िला स्तरीय कार्य करती है। ऊंघता नीम कांपता पीपल नाम से दिनकर की किताब प्रकाशित हो चुकी है। तेमसुला आओ : प्रख्यात नागा लेखिका तेमसुला आओ का निधन 9 अक्तूबर 2022 को दीमापुर में हो गया था। साहित्य अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि वे आओ भाषा को प्रतिष्ठता दिला पाई, जिसकी कोई लिपि भी नहीं थी। उन्होंने केवल नागालैंड के लिए नहीं बल्कि समूचे उत्तर-पूर्व के लिए कार्य किया और वह भी बहुत सहजता के साथ, बिना मुखर हुए। वे उत्तर-पूर्व का सच्चा चेहरा थीं। वे अपने लेखन एवं उसके अनुवाद से पूरे भारत में लोकप्रिय थीं। उनका जाना नागालैंड की क्षति ही नहीं बल्कि देश के साहित्यिक जगत की क्षति है। मृणाल गिरी ने उनके नागा लोकसाहित्य एवं संस्कृति पर किए गए महत्त्वपूर्ण कार्य को याद करते हुए उनकी पाककला की भी प्रशंसा की। कार्यक्रम के आरंभ में साहित्य अकादेमी के सचिव के.श्रीनिवासराव ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि उनके जाने से साहित्य अकादेमी ने एक सच्चा हितेषी और मार्गदर्शक खो दिया है। वे अपने कार्यों से उत्तर-पूर्व के लोगों के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत बनी रहेंगी। सतीश बाबू पैयन्नूर : साहित्य अकादमी से सम्मानिक लेखक 59 वर्षीय सतीश बाबू पैयन्नूर तिरुवनंतपुरम स्थित अपने फ़्लैट में मृत पाए गए थे। लघु कथाकार और उपन्यासकार सतीश बाबू पैयन्नूर का जन्म 1963 में पलक्कड़ के पाथिरिपाला में हुआ था। उन्होंने कान्हांगड नेहरू कॉलेज और पय्यानूर कॉलेज में अध्ययन किया। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने कहानी, कविता और निबंध लेखन में अपनी प्रतिभा दिखाई। अपने कॉलेज के दिनों में उन्होंने कालीकट यूनिवर्सिटी के पहले कैंपस अखबार 'कैंपस टाइम्स' का संपादन और प्रकाशन किया। कॉलेज के बाद उनकी पहली नौकरी स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर में थी। उन्होंने साप्ताहिक कासरगोड 'ईझाचा' के संपादक के रूप में भी काम किया। उनके द्वारा लिखे उपन्यासों में पेरामारम, फोटो, दैवपुरा, मांजा सूर्यंते नालुकल, कुदामानिकल किलुंगु राविल शामिल हैं।उन्हें अपने संग्रह पेरामारम के लिए 2012 में केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उन्हें करूर पुरस्कार, मलयतुर पुरस्कार और थोपिल रवि पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। वे केरल साहित्य अकादमी और केरल फिल्म अकादमी के सदस्य रहे और कई टेलीविजन फ़िल्मों और वृत्तचित्रों का निर्देशन किया। उन्होंने पांच साल तक केरल संस्कृति विभाग के तहत भारत भवन के सचिव के रूप में कार्य किया था। 1992 में रिलीज़ हुई फिल्म नक्षत्रकुदरम और ओह फौबी के लिए पटकथा लिखी।