कल फीफा विश्वकप के फाइनल के बाद फ्रांस की टीम के उदास चेहरे देख कर, बहुत देर तक सोचता रहा आखिर कौन जीता कौन हारा । पिछले तीन वर्ष से विश्व के 80 देशों की टीम कतर में होने वाले विश्व कप के लिये जद्दोजहद कर रही थी ।। उनमें 32 टीम ने विश्वकप में भाग लिया । आपने कभी सोचा की हार के बाद जो खामोशी , निराशा ,हताशा ,गम फ्रांस की टीम में था ,ऐसा हारने वाली अन्य टीमों में कम था या था ही नही । मनोविज्ञान के इस तथ्य को समझना बहुत आवश्यक है ।
फ्रांस जैसी टीम जिसके एक खिलाड़ी ने फाइनल में हैटट्रिक लगाई हो , हारते हुए मैच में वापसी करवाई हो आखिर वो टीम दुखी क्यों थी । क्या मंजिल से एक कदम पहले रुक जाना हताशा निराशा का कारण है या ज्यादा अपेक्षा रख कर पूरी न होना । सही कहा है Expectations reduces joy. जो आशा मबापे ने खेल के 80वें 82वें व 118वें मिनट में जगा दी थी वो पेनलिटी शूट आउट में धूल धूसरित हो गयी । हां यह निराशा ज्यादा से ज्यादा एक दिन की रहेगी और जैसे फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रॉन ने खिलाड़ियों की होंसलाफ़जाई की , मनोबल बढाया ,फ्रांस की टीम फिर अगले विश्व कप के लिये जुट जाएगी ।
लेकिन मेरा प्रश्न यही है कि मानव स्वभाव में ऐसा क्या है कि दूसरे नम्बर पर रहने वाली टीम 3 से 80 नम्बर तक रहने वाली टीम से ज्यादा दुखी क्यों होती है । जबकि वो उनसे ज्यादा उत्कृष्ट थी । क्या फाइनल में पहुंच कर ही वो विश्व विजेता नही बने थे । जो हमे नही मिला उसके लिये हम पछताते है और जो हमे मिला उसे भूल जाते है । हम भूल जाते है कि हमारे संघर्ष में , प्रयास में कमी नही थी अपितु दूसरी टीम अपेक्षाकृत अच्छी खेली ।
कुल मिला कर चार वर्ष की मेहनत के बाद अर्जनटिना के उल्लास और फ्रांस के सन्नाटे में मैं खेल के उद्देश्य को भटकते हुआ पा रहा हूँ । आखिर क्या यह सच नही की विश्वकप किसी देश की फुटबॉल में उत्कृष्टता से ज्यादा वसुधेव कटुम्बकम के मकसद से आयोजित किया गया था । इसलिये मेरे विचार से कल के मैच में अर्जनटिना , मबापे, मेसी , मैक्रॉन , फ्रांस ,फुटबॉल , विश्व समुदाय और खेल भावना आदि कई विजेता हैं ।।